कुछ दिन पहले कोई हम से पूछा की हम किस भाषा में सोचते हैं. जवाब देने में हम को दो सेकेंड भी नही लगा.
हिन्दी. पटना में तो फिर भी हिन्दी दिख जाता है. प्रेमचंद की कहानियो का संग्रह,
टागॉर की लेखनी या शिवानी के उपन्यास. परिवार में अनेक लोग थे जो यह पुस्तक पढ़ते थे. यहाँ
पता नही क्यूँ हम प्रसिद्ध हिन्दी कहानिया भी अँग्रेज़ी में ही पढ़ते हैं. और अगर हिन्दी में कुछ
लिख भी दें तो बहुत गर्व महसूस करतें हैं. जैसे कोई बिल्कुल अजूबा कर दिया हो. देवनागरी जैसे लिप्त हो रही है. न्यूज़ चॅनेल भी रोमन स्क्रिप्ट में न्यूज़ लिखते हैं, अधिकतर. लेकिन अगर आप अँग्रेज़ी अख़बार भी देखे तो कई बार आप पाएगें की अग्रेज़ी का वाक्य सीधा अनुवाद है
हिन्दी वाक्य का, यानी, किसी ने हिन्दी में सोचें वाक्य को वैसे ही अँग्रेज़ी में लिख दिया.
और सिर्फ़ अख़बार ही क्यूँ, कई बार वार्तालाप करतें वक़्त भी हम हिन्दी में सोच कर अँग्रेज़ी में बोल देते हैं.
वाक्य बिल्कुल ही अटपटा लगता है.
यह लेखनी क्यूँ लिखी? शायद बहुत दिन हो गया था अपनी मर्ज़ी का कुछ हिन्दी में लिखे हुए. और पढ़े हुए.
Friday, September 26, 2008
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2 comments:
कई बार तो लगता है मानो हम एक ऐसे समाज मे जी रहे हैं जो किसी पश्किमी देश का हिस्सा है. हिन्दी में वार्तालभ करने वाला व्यक्ति निंदा का पात्र बन जाता है. अँग्रेज़ी भाषा में बोलो, अँग्रेज़ी में लिखो, अँग्रेज़ी में पढ़ो ताकि एक दिन अपनी हे मात्रा भाषा को लोग नीची निगाहों से देखते हैं.
भला हो इंसान का जिसने अँग्रेज़ों की ही टेक्नालजी (इसका हिन्दी नही आता ) को इस्तेमाल किया है हिन्दी लिखने के लिए. आओ अपनी भाषा को उसके उचित स्थान पर पोनचाएँ.
होप इट कॅन स्पार्क ए रेवोल्यूशन
Let's start with two things
A) The font is too small.
B) Hindi has always managed to perplex my, although Sanskrit has never done so
SO pardon me for not understanding my matri bhasha, my par par par matri bhasha suits me much better
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